Wednesday, September 24, 2008

श्री गुरूजी की आरती

ओम श्रीगुरु कृष्ण हरे, प्रभु श्रीगुरु कृष्ण हरे।
मायातीत महेश्वर, मन वच बुद्धि परे॥
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल अविनाशी।
अतुल, अनंत, अनामय, अमित शक्ति राशी॥
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
सत, चित, आनंद, सुंदर, शिव सत्ताधारी॥
विधि, हरि, शंकर, गणपति, सूर्य शक्ति रूपा।
अखिल जगत सचराचर, तुमही विश्वरूपा॥
माता, पिता, पितामह, स्वामी सुहृद भर्ता।
विश्वजनक, जगपालक, रक्षक संहर्ता॥
साक्षी, शरण, सखाप्रिय, प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
केवल, काल, कलानिधि, कालातीत विभो॥
राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत सागर।
मनमोहन मुरलीधर, नित-नव नटनागर॥


Monday, September 22, 2008

जो है उसी को ईश्वर कहते हैं

एक भाई का प्रश्न है कि क्या ईश्वर है?
छोटी सी बात है जो नहीं समझ पाने के कारण बड़ी सी दिखने लगती है। दुनिया में जिसकी स्थाई सत्ता है उसी तत्व का नाम ईश्वर है। वह अपने मूल रूप में अजर, अमर, अविनाशी है। उसे देखा, छुआ और मिटाया नहीं जा सकता। बस अनुभव किया जा सकता है।
यूरोप में अस्तित्व कि खोज का जो कार्यक्रम चल रहा है वह असल में उसी मूल तत्व के संधान का कार्य है। भारतीय सांस्कृतिक सद्ग्रंथों में इसका बड़ा ही स्पष्ट उल्लेख सदियों से है। अब वैज्ञानिकों कीबारी है की वे इस पर प्रकाश डालें।

श्याम आशीष परिवार का गुरुवारीय सत्संग जारी

जयपुर का श्याम आशीष परिवार अपने इच्छुक सदस्यों के आवास पर गुरुवार को सत्संग का आयोजन करता है। संस्था के एक प्रमुख सदस्य ने आज यह जानकारी देते हुए बताया कि इस परिवार में नए सदस्यों का भी स्वागत है।
हम शीघ्र ही संस्था के सदस्यों कि पूरी सूची प्रकाशित कर रहें हैं।

श्री महेशजी के घर पर अनुष्ठान

खेरली निवासी श्री महेश जी के घर पर आगामी १३ अक्टूबर को चौदस तिथि के शुभ मुहूर्त में एक दिवसीय चंडी पाठ अनुष्ठान का आयोजन किया गया है। श्री गुरूजी इसमें आचार्य के रूप में उपस्थित रहेंगे।

शारदीय नवरात्र श्री गुरूजी के साथ

इस बार शारदीय नवरात्र का उत्सव ३० सितम्बर से शुरू हो रहा है। गुरुदेव महेशानंद जी गंज खेरली के निकट अलीपुर हिन्गोटा क्षेत्र में भगवती क्रशर पर नौ दिवसीय चंडी पाठ करते हुए भक्तों के साथ देवी पूजन का महा पर्व मनाएंगे। साथ में श्रीमद्देवी भागवत का पाठ भी होगा।
इस आयोजन में माँ के सभी भक्त सादर आमंत्रित हैं।

Wednesday, September 17, 2008

रसीदपुर में नौ दिवसीय भागवत कथा

महुआ तहसील के रसीदपुर में १८ सितम्बर से गुरुदेव महेश आनंद जी की नौ दिवसीय भागवत कथा की शुरुआत हो रही है। सभी का स्वागत है।

  • उपाचार्य- रामानन्दजी
  • संगीत- शिवानंदजी
  • वादक- धर्मवीर ठठेरा
  • सहयोगी- योगेन्द्र टिंकर व मुकेश टिंकर

Tuesday, September 16, 2008

मेरा अस्तित्व कहाँ है?

हमारे जीवन में सबसे बड़ी मुश्किल यह है की हम अपनी सत्ता को मौजूद मानते हैं। यह भ्रम ही सारे दुखों का मूल है। क्योंकि मैं हूँ तो मेरी दुनिया भी होगी। दुनिया होगी तो उससे लगाव, आसक्ति भी होगी; और आसक्ति ही तो तमाम मुश्किलें पैदा करती है।

गैर-आध्यात्मिक व्यक्तियों की मुश्किल है कि वे समझ नहीं पते कि उनकी सत्ता कैसे नहीं है। इस सम्बन्ध में एक बड़ा ही रोचक दृष्टान्त है।

एक बार एक राजा ने सुना कि उनकी राजधानी में एक बड़े ही विद्वान संत पधारे हुए हैं। राजा के मन में उन्हें महल में बुला कर भोजन कराने की इच्छा हुई। उसने अपने मंत्री को संत जी को आमंत्रण देने के लिए भेजा।

मंत्री ने जाकर संत से आग्रह किया की यदि वे एक दिन राजा के महल में आकर जूठन गिरा जावें तो राजा धन्य हो जायें।

संत ने मुस्कराते हुए कहा, 'ठीक है, यदि राजा धन्य होना ही चाहते हैं तो मैं आज के चौथे दिन उनके महल में पधारुंगा। लेकिन राजा से कह देना मैं तो तो हूँ ही नहीं।'

मंत्री को बात बड़ी अजीब लगी। संत जी अगर हैं ही नहीं तो पधारेंगे कैसे और पधारेंगे तो हैं कैसे नहीं। लेकिन मंत्री ने संत जी इस बारे में विवाद करना उचित नहीं समझा। वे राजा के संदेश वाहक थे। संदेश वाहक का काम विवाद करना नहीं है। यह सोच कर मंत्री महल को वापस आ गए और सारा वृतांत कह सुनाया।

मंत्री की ही तरह राजा भी बड़े चकित हुए। लेकिन काफी सोच-विचार करने के बाद भी वे मामले के तह तक नहीं पहुंचे।

समय बीता। चौथे दिन ठीक निर्धारित समय पर राजा ने अपने सबसे सुंदर रथ को सजा करके संत जी को लाने के निमित्त भेजा। संत जी उसी में स्वर होकर आए।

राजा ने महल के दरवाजे पर आकर उनकी आगवानी की। बड़े ही विनम्र भाव से राजा ने संत जी के पैर छूटे हुए पूछा: 'भगवन! शिष्टाचार का तकाजा है कि मैं पहले आपको भीतर तक ले चलूँ। आसन दूँ, जल आदि से आपको संतुष्ट करुँ और तब यदि कोई प्रश्न हो तो करुँ। लेकिन भगवन! मैं विगत चार दिनों से इतना व्यग्र हो गया हूँ कि आपसे यहीं जिज्ञासा करता हूँ कि यदि आप नहीं है तो यह आया कौन है?

संत जी मुस्कराते हुए रथ से उतरे और राजा को रथ से थोड़ी दूर ले जाकर खड़ा कर दिया। फ़िर सेवकों से कहा कि वे रथ में जुते हुए घोड़ों को खोल कर ले आवें।

जब सेवक घोड़ों को खोल कर ले आए तो संत ने उनकी तरफ़ इशार करते हुए राजा से पूछा, 'राजन, क्या यह रथ है?'

राजा हाथ जोड़े खड़े रहे और बोले, 'महाराज, यह स्पष्ट है कि ये घोड़े हैं। घोड़े रथ कैसे हो सकते हैं?'

संत जी ने घोड़े अलग करवा दिए। फ़िर रथ की छतरी उतरवाई और पूछा, क्या यह रथ है?


राजा ने फ़िर मना किया। यह क्रम चलता रहा। रथ के हिस्से-पुर्जे आते-आते बीत गए।

फ़िर संत जी ने अंत में पूछा: 'राजन! यह रथ कहाँ गया? मैंने कुछ छुपाया नहीं और तुमने रथ के किसी भी अंग को रथ बताया नहीं। जिसे रथ कहते हैं वह विभिन्न अंगों का जोड़ मात्र है। रथ व्यवहार में तो है। मैं उसी पर स्वर होकर आया। लेकिन परमार्थ में रथ की कोई सत्ता नहीं है। अंगों के बिखरते ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।'

इसी तरह हमारा अस्तित्व भी कई अंगों का जोड़ मात्र है। हमारी कोई सत्ता नहीं। एक दिन जब यह विखर जाएगा, हमारी पहचान मिट जायेगी। सनातन तत्व तो आत्मा ही है। इसलिए सत्ता भी वास्तव में उसी की है।

राजन! जो जीव इस तथ्य को याद रखता है वह आसक्ति में नहीं पड़ता। जब मेरी सत्ता ही नहीं है तो मेरा घर, परिवार, देश, जाति वगैरह कैसे हो सकती है? इस बात को याद रखनेवाला संसार से तर जाता है।

राजा ने संत को फ़िर नमन किया और शिष्यत्व ग्रहण करके धन्य हो गया।